Friday, September 21, 2012

बंदउँ प्रथम महीसुर चरना। मोह जनित संसय सब हरना॥
सुजन समाज सकल गुन खानी। करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी॥2
पहले पृथ्वी के देवता ब्राह्मणों के चरणों की वन्दना करता हूँजो अज्ञान से उत्पन्न सब संदेहों को हरने वाले हैं। फिर सब गुणों की खान संत समाज को प्रेम सहितसुंदर वाणी से प्रणाम करता हूँ॥2
साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू॥
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा॥3
संतों का चरित्र कपास के चरित्र (जीवनके समान शुभ हैजिसका फल नीरसविशद और गुणमय होता है। (कपास की डोडी नीरस होती हैसंत चरित्र में भी विषयासक्ति नहीं हैइससे वह भी नीरस हैकपास उज्ज्वल होता हैसंत का हृदय भी अज्ञान और पाप रूपी अन्धकार से रहित होता हैइसलिए वह विशद है और कपास में गुण (तंतुहोते हैंइसी प्रकार संत का चरित्र भी सद्गुणों का भंडार होता हैइसलिए वह गुणमय है।) (जैसे कपास का धागा सुई के किए हुए छेद को अपना तन देकर ढँक देता हैअथवा कपास जैसे लोढ़े जानेकाते जाने और बुने जाने का कष्ट सहकर भी वस्त्र के रूप में परिणत होकर दूसरों के गोपनीय स्थानों को ढँकता हैउसी प्रकारसंत स्वयं दुःख सहकर दूसरों के छिद्रों (दोषोंको ढँकता हैजिसके कारण उसने जगत में वंदनीय यश प्राप्त किया है॥3
मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू॥
राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥4
संतों का समाज आनंद और कल्याणमय हैजो जगत में चलता-फिरता तीर्थराज (प्रयागहै। जहाँ (उस संत समाज रूपी प्रयागराज मेंराम भक्ति रूपी गंगाजी की धारा है और ब्रह्मविचार का प्रचार सरस्वतीजी हैं॥4
बिधि निषेधमय कलिमल हरनी। करम कथा रबिनंदनि बरनी॥
हरि हर कथा बिराजति बेनी। सुनत सकल मुद मंगल देनी॥5
विधि और निषेध (यह करो और यह न करोरूपी कर्मों की कथा कलियुग के पापों को हरने वाली सूर्यतनया यमुनाजी हैं और भगवान विष्णु और शंकरजी की कथाएँ त्रिवेणी रूप से सुशोभित हैंजो सुनते ही सब आनंद और कल्याणों को देने वाली हैं॥5
बटु बिस्वास अचल निज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा॥
सबहि सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा॥6
(उस संत समाज रूपी प्रयाग मेंअपने धर्म में जो अटल विश्वास हैवह अक्षयवट है और शुभ कर्म ही उस तीर्थराज का समाज (परिकरहै। वह (संत समाज रूपी प्रयागराजसब देशों मेंसब समय सभी को सहज ही में प्राप्त हो सकता है और आदरपूर्वक सेवन करने से क्लेशों को नष्ट करने वाला है॥6
अकथ अलौकिक तीरथराऊ। देह सद्य फल प्रगट प्रभाऊ॥7
वह तीर्थराज अलौकिक और अकथनीय है एवं तत्काल फल देने वाला हैउसका प्रभाव प्रत्यक्ष है॥7
दोहा :
सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग॥2
जो मनुष्य इस संत समाज रूपी तीर्थराज का प्रभाव प्रसन्न मन से सुनते और समझते हैं और फिर अत्यन्त प्रेमपूर्वक इसमें गोते लगाते हैंवे इस शरीर के रहते ही धर्मअर्थकाममोक्षचारों फल पा जाते हैं॥2
चौपाई :
मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला॥
सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई॥1
इस तीर्थराज में स्नान का फल तत्काल ऐसा देखने में आता है कि कौए कोयल बन जाते हैं और बगुले हंस। यह सुनकर कोई आश्चर्य न करेक्योंकि सत्संग की महिमा छिपी नहीं है॥1
बालमीक नारद घटजोनी। निज निज मुखनि कही निज होनी॥
जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना॥2
वाल्मीकिजीनारदजी और अगस्त्यजी ने अपने-अपने मुखों से अपनी होनी (जीवन का वृत्तांतकही है। जल में रहने वालेजमीन पर चलने वाले और आकाश में विचरने वाले नाना प्रकार के जड़-चेतन जितने जीव इस जगत में हैं॥2
मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई॥
सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ॥3
उनमें से जिसने जिस समय जहाँ कहीं भी जिस किसी यत्न से बुद्धिकीर्तिसद्गतिविभूति (ऐश्वर्यऔर भलाई पाई हैसो सब सत्संग का ही प्रभाव समझना चाहिए। वेदों में और लोक में इनकी प्राप्ति का दूसरा कोई उपाय नहीं है॥3
बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
सतसंगत मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला॥4
सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और श्री रामजी की कृपा के बिना वह सत्संग सहज में मिलता नहीं। सत्संगति आनंद और कल्याण की जड़ है। सत्संग की सिद्धि(प्राप्तिही फल है और सब साधन तो फूल है॥4
सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई॥
बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं॥5
दुष्ट भी सत्संगति पाकर सुधर जाते हैंजैसे पारस के स्पर्श से लोहा सुहावना हो जाता है (सुंदर सोना बन जाता है), किन्तु दैवयोग से यदि कभी सज्जन कुसंगति मेंपड़ जाते हैंतो वे वहाँ भी साँप की मणि के समान अपने गुणों का ही अनुसरण करते हैं। (अर्थात्‌ जिस प्रकार साँप का संसर्ग पाकर भी मणि उसके विष को ग्रहण नहीं करती तथा अपने सहज गुण प्रकाश को नहीं छोड़तीउसी प्रकार साधु पुरुष दुष्टों के संग में रहकर भी दूसरों को प्रकाश ही देते हैंदुष्टों का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।)5
बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी। कहत साधु महिमा सकुचानी॥
सो मो सन कहि जात न कैसें। साक बनिक मनि गुन गन जैसें॥6
ब्रह्माविष्णुशिवकवि और पण्डितों की वाणी भी संत महिमा का वर्णन करने में सकुचाती हैवह मुझसे किस प्रकार नहीं कही जातीजैसे साग-तरकारी बेचनेवाले से मणियों के गुण समूह नहीं कहे जा सकते॥6
दोहा :
बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ।
अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ॥3 ()
मैं संतों को प्रणाम करता हूँजिनके चित्त में समता हैजिनका न कोई मित्र है और न शत्रुजैसे अंजलि में रखे हुए सुंदर फूल (जिस हाथ ने फूलों को तोड़ा औरजिसने उनको रखा उनदोनों ही हाथों को समान रूप से सुगंधित करते हैं (वैसे ही संत शत्रु और मित्र दोनों का ही समान रूप से कल्याण करते हैं।)3 ()
संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु।
बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु॥ 3 ()
संत सरल हृदय और जगत के हितकारी होते हैंउनके ऐसे स्वभाव और स्नेह को जानकर मैं विनय करता हूँमेरी इस बाल-विनय को सुनकर कृपा करके श्री रामजी के चरणों में मुझे प्रीति दें॥ 3 ()
प्रातः स्मरणीय महामंडलेश्वर भगवानदेव परमहंस हरियाणा के ऐसे ही संत है.
प्रत्येक व्यक्ति का माया से निरन्तर युद्ध हो रहा है और गुरु महराज कि किताबे इस् युध मे गोले का काम करती है.

जब हनुमान जी ने लंका में प्रवेश किया तब लंकनी ने हनुमान जी से कहा की वो उनको लंका में प्रवेश नहीं करने देंगी. तब हनुमान जी ने लंकनी पर एक मुस्ठी प्रहार किया जिससे उसके विचार बदल गए और वो गा कर बोल पड़ी -
तात स्वर्ग अपवर्ग सुख तूल धरिअ एक अंग
तूल न ताहि सकल मिली जो सुख लव सत्संग   रामचरित मानस 

मतलब स्वर्ग के सभी सुखो को भी यदि तुला के एक तरफ रख दिया जाये तो भी वो सत्संग के सुख के वजन से कम ही होगे .गुरुमहाराज की किताबे इसी सत्संग को ही प्रदान करती है .
सिख धर्म में तो गुरु माना जाता है....

नाथ संप्रदाय के गोराक्षनाथ जी ने कहा था.........

हसिबो खेलिबो धरिबो ध्यान
अहर्निश करिबो आत्मज्ञान
हंसते, खेलते ध्यान, खाओ पियो पर उसमें आसक्ति न रखो। 

सीख संप्रदाय के गुरू नानक जी ने कहा,
“ हसंदिया ,खेलंदिया, खावंदिया ,पेहेनंदिया....  विच कर दिए मुगती….” हसते खेलते पहनते खाते मुक्ति कर दे  ऐसे सदगुरु हमें  प्यारे लगते है…..


साधुनाम  दर्शनं  सर्व सिद्धि 

Bhagwan seedhi seedhe kalyan nahi karte apne anucharo (santo se) se karte he- bhagwan ne ukhal se ped gere seedhi ped nahi gere. 
Bhagwat darshan ka fal hai sant darshan hai. 

hriday priti mukh vachan kathora 
Ganga papam, shashi tapam, satyam, ..papam tapam tatha dainyam sadhu samagam 

Dhanya mata pita dhanya ..yatra sa Guru bhakt tay --Shivji Guru ke bare me kahte hai ki gurubhakt ke mata pita, kul gotra dhanya hai 
punya punj binu milahi nahi santa, satsangati sansriti kar anta - ramcharitmanas uttar kand// nark nishani chaar. ..swarg nishani char.
Satsang, sumiran, seva - ye teeno karo, jivan ka param labh,
गुरु स्तोत्र
Aapki katha me 7 gun- katha amrit, tapto ke liye jivan, kaviyo ke dvara prashansit , sampurn paap nast, shravan matrase mangal, apki katha me lakshmi nirantar virajti, katha sarvatra vyapt hai. Us katha ko jo gate hai ve jan bahut kuch de dete hai. Bhuri da jana- sanskrit  me bhuri ke 6 arth, bhuri mane lakshmi, suvarn, brahma ,vishnu- jo apki katha kahte hai ve bahut kuch jeev ko de dete hai

aag lage aakash me gagan pade aagar , sant na hote jagat me to jal padta sansaar

Guru hai to jindagi shuru hai. Bhagwan jindagi deta hai par guru jindagi jeene ka tareeka batata hai 

Bhajan -Sadguru main teri patang hava vich udati javagi, data dor hatho chhadi main kat javagi 

Bhajan - ab prabhu karo daya i bhati, sab taj bhajo karo din rati

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संत न होते जगत में तो जल पड़ता संसार
आग लगी आकाश में झड--झड गिरे अंगार..!संत न होते जगत में तो जल मरता संसार..!!!

सतगुरु मैं तेरी पतंग 

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